युगपुरुष – अटल जी (श्रद्धांजलि)

हिंदुस्तान के उदयमान भविष्य के मुकुट पे,
वो एक नाम कोहिनूर बन हमेशा चमकेगा।
सियासतों का कारवाँ तो बदस्तूर है,
न कभी रुका है और न ही कभी थमेगा।
पर गुजरे इतिहास के हर कामयाब पन्ने पे,
अटल जी आपका योगदान अमिट रहेगा।

~ Gourav

(आप बहुत याद आओगे, जिस वक्त होंश संभाला और सही गलत का फैसला लेने की काबिलियत आयी, उस वक़्त आपको प्रधानमंत्री के रूप में देखा। आपका वो दैदीप्यमान चेहरा और वाणी से टपकता हुआ ओज आज भी मिश्री के समान कानों में घुलता है। एक ख्वाइश कसक बनकर हमेशा दिल में बांकी रही कि काश आपको एक बार और प्रधानमंत्री के रूप में देख पाता। खैर अब वो आश भी जाती रही। एक छोटी सी और भावभीनी श्रद्धांजलि)

बूढ़ा बैल!

“अरे मोतिया उठ जाई, ई बीचे दियारवा पे हिम्मत न तोड़ी, ऊ पहाड़ी वाले भोले बाबा की कसम, अब आगे से तू दुवारिये पे रहिये, तोहके नइखे जोतब अब हम टप्परगाड़ी में। हमरे मत्था पाप न ढारि, ऐ मोतिया बस अंतेमे बार उठ जाई” (A)

बेइंतहा गर्मी थी, रामदीन के दो बूढ़े बैलों में से, मोती गश खाकर गिर पड़ा, हीरा भी फ़क़त हाँफ रहा था। बचने की उम्मीद न के बराबर थी। भतीजी की शादी के विदागी के सामानों से बैलगाड़ी पूरी तरह लदा हुआ था, और आज रात का ही लग्न था। दियारा के वीराने में फंस और सांझ उतरता देख रामदीन की धड़कनें और तेज हो गयीं, मोती को हिचकियाँ आने लगी वो उसकी गर्दन पकड़ रोने लगा।

“मोतिया तोहरे बहिनिया के बिहा बा हो, जे ई सामान के साथ न पहुंचब सही घड़िया पे, ते बहुते ऊँच नीच हो जाई, उठ जाई आखिरी बेरिया हमनी के इज्जत रख ली। तू बस भार थम लेहि, धक्का हम लगा देब, मोतिया उठ जाईईईई…!” (B)

तभी कुछ अप्रत्याशित सा घटित हुआ, मोती के शरीर में हलचल हुयी, और वह उठ खड़ा हुआ। दोंनो बैलों के बीच खुद रामदीन गाड़ी को खींचता रहा, देर रात गाड़ी दरवाजे पे आकर खड़ी हो गयी। बारात दरवाजे लग चुकी थी, और कानाफूसीयों से माहौल गर्म था। बैलगाड़ी पे नज़र पड़ते ही ज्वार ठंडा पड़ गया। सिंदूरदान हुआ और शादी समपन्न हुयी।

सुबह सुबह विदागी के मर्मस्पर्शी माहौल में, दरवाजे पे दम तोड़ चुके मोती के पास विलाप करती हुयी दुल्हन को जिसने भी देखा उनके हृदय खंड खंड हो गिर पड़े।

मौलिक एवं अप्रकाशित
©गौरव आनंद
इंदौर, मध्यप्रदेश
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(आंचलिक वाक्यों का हिंदी में अनुवाद)
A – “ओ मोतिया उठ जा, इस बीच दियारे पे हिम्मत न तोड़ो, पहाड़ वाले शंकर भगवान की कसम, अब आगे से तुम केवल दरवाजे पे ही रहना, बैलगाड़ी में नहीं जोतेंगे तुम्हें। मेरे माथे पे यह पाप मत ढोल, ओ मोतीया बस आखिरी बार के लिए उठ जा”
B – “मोतिया तुम्हारे बहन की ही शादी है, सामान अगर सही समय पर नहीं पहुंचा, तो बहुत ऊँच नीच हो जाएगी। उठ जा आखिरी बार हमारी इज्जत रख ले। तुम सिर्फ भार थाम लेना, धक्का हम लगा देंगे, मोतिया उठ जा”

पारुल – एक लघुकथा!

पारुल आ रही थी कुछ दिनों के लिए। यूँ तो दूरस्थ शिक्षा के अंतर्गत सारी पढ़ाई गाँव में ही रहकर करती थी, पर साल में एक बार आना होता ही था, परीक्षाएँ देने के लिए। इस बार स्नातकोत्तर का अंतिम वर्ष था। पारुल मुझसे तो यूँ चार वर्ष छोटी थी, पर हक मुझ पे बिलकुल बराबरी का रखती थी।

“क्या भैया क्या हाल कर रखा है कमरों का, रेगिस्तान की माफ़िक सिर्फ धूल ही धूल है”
“पर्दे कब धोए थे आखिरी बार, चादर कब से नहीं बदली”
“ढंग के कपड़े तो पहना करो, क्या कहते होंगे मोहल्ले वाले भी” बीते वर्षों की वो सारी नोक झोंक और बातें याद आने लगी, यूँ तो हर बार माँ भी आ ही जाती थी साथ में और बीच बचाव का काम उनके हिस्से था, पर इस बार अस्वस्थता के कारण वो नहीं आ पायीं।

पारुल को अहले सुबह स्टेशन से ला, दफ्तर के लिए रवाना हो गया, महीने के अंतिम दिनों की व्यस्तता की वजह से अवकाश मिलने में मुश्किल आ गयी। मुझे लगा था इस बात पे भी पारुल झगड़ेगी मुझसे, पर आश्चर्य हुआ जब उसने कहा “कोई बात नहीं भैया”। पारुल वाकई में समझदार हो गयी थी या फिर अब वो पहले जैसी बात नहीं रह गयी। रास्ते भर यही सब मंथन चलता रहा और निर्णय लिया चाहे जो हो इस बार लड़ाई नहीं होगी बस थोड़े ही दिनों की तो मेहमान है, इतना सोचते ही आँखें सजल हो उठीं।

शाम को घर आया तो वहाँ का नज़ारा देख बस ठगा का ठगा सा ही रह गया, टेबल, अलमिरे और किताबों के ऊपर जमी हुई धूल की मोटी परत गायब थी। हर समान व्यवस्थित हो अपनी जगह पर रखा हुआ मानों अपने होने के प्रयोजन को सिद्ध कर रहा हो। बुझी हुई रसोई में एक नई चमक बिखरी गयी थी। भीनी भीनी सी खुश्बू का इल्म हो रहा था हवाओं में। माता रानी के दरबार में ज्योत न जाने आज कितने दिनों के बाद प्रज्वलित हुई होगी।

“भैया चाय पी लो, शहर के दूध की चाय में तो कोई जायका ही नहीं और माँ ने कुछ नमकीन भिजवाया है आपके लिए, लो चखो तो जरा” पारुल की आवाज से तंद्रा भंग हुई। उसने तपाक से यह भी पूछ लिया, “रात के खाने में क्या खाओगे भैया, आलू के पराँठे बना दूँ, तुम्हें तो बहुत पसंद है ना”

रात भर मन मस्तिष्क में अजीब सी उथल पुथल मचती रही, नींद का आँखों से कोई सरोकार न रह गया। सुबह पौ फटते ही पारुल को जगाया “छोटी उठ तो, चाय बना दे जरा, सुबह वाली पहली पैसेंजर से गाँव को जा रहा हूँ,”

पारुल हड़बड़ा कर उठ बैठी, क्या हुआ भैया “माँ तो ठीक है ना, मुझे नहीं आना था उन्हें अकेला छोड़कर, तबियत ठीक नहीं थी उनकी” और जोर जोर से रोने लगी।

“अरे पगली शांत हो जा, देर रात तक वापस आ जाऊँगा आज ही।”

“मतलब” पारुल अवाक हो मुझे घूर रही थी।

“माँ को लाने के लिए जा रहा, जैसे यहाँ शहर के दूध का कोई जायका नहीं, उसी तरह तुम दोनों के बिना, मेरी ज़िंदगी का भी कोई जायका नहीं”

पारुल जो आजतलक सिर्फ नोंक झोंक ही करती रही थी, आज गले से लिपट रो पड़ी।

मेरे बढ़ते कदमों के साथ साथ, नयी सुबह के क्षितिज में भास्कर का भी उदय हो चुका था।

दोहरा मानदंड

देश के नामचीन अखबार के दफ्तर में काफी गहमा गहमी थी। राजधानी में एक नाबालिक के साथ हुए बलात्कार और फिर निर्मम हत्या ने वतन की फिजाओं में आक्रोश घोल दिया था। सभी अखबार चैनलों में टी.आर.पी. की होड़ लगी थी और नमक मिर्च लगा के खबर को खूब परोसा जा रहा था।

परंतु प्रिंट मीडिया में, वो भी संपादकीय पृष्ठ में लेख छापने के लिए काफी संतुलन और संयम की आवश्यकता थी। नेहा जिसने अभी अभी ही पदोन्नति पाकर सहायक संपादक का पदभार संभाला था, आजकल काफी बुलंद हौंसलों में थी और नारीवादी मुद्दों को लेकर काफी प्रखर भी रहा करती थी।

ऑफिस में मुख्य संपादक, नेहा से मुखातिब होते हुए पूछते हैं,
“कल रविवार के संपादकीय पृष्ठ के लिए कोई लेख अब तक चयनित हो पाया है या नहीं, नेहा?”
“जी सर, महिला अधिकारों और सशक्तिकरण को लेकर लंबे अरसे से लड़ाई लड़ने वाली एक नामी गिरामी एन. जी. ओ. की संचालिका के लेख को चुना है मैंने”
“हर बार उनके लेखों में मिला जुला कर वही बात रहती है, इस बार कुछ खास है क्या”
“हाँ सर, इस बार उन्होंने पितृसत्तात्मक समाज और पुरुषवादी सोच पे जमकर प्रहार किया है, या यूँ कहें समस्त पुरुष समाज को कठघरे में लाकर खड़ा कर दिया है और पुरुषत्व के मानदंडो और आदर्शों पर एक प्रकार का प्रश्नचिन्ह सा ही लगा दिया है”
“पर क्या इस लेख को छापना, पुरुष समाज के प्रति एक प्रकार का पक्षपात पूर्ण रवैया नहीं होगा”
“सर पर अभी जिस प्रकार की सरगर्मी है उसके हिसाब से तो यह लेख बिल्कुल सही रहेगा”
“ठीक है लेख को अनुमोदित कर दो”

मुख्य संपादक जो लेखों को पढ़े बिना कभी स्वीकृति नहीं देते थे, आज उन्होंने बिना देखे ही अनुमोदन दे दिया था।”

कुछ ही हफ्तों बाद, भीषण आतंकवादी हमले में कई निर्दोष लोगों की जानें जा चुकी थी, दहशतगर्द पड़ोसी मुल्क के थे इस बात की भी पुष्टि हो चुकी थी। ठीक वही माहौल समाचार पत्र के दफ्तर में फिर से था, संपादकीय पृष्ठ के लेख के लिए माथापच्ची हो रही थी।

मुख संपादक, नेहा से मुखातिब होते हुए, “नेहा, फिर क्या चयन किया है कल के लिए”
“सर, जाने माने विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित शिक्षाविद का एक लेख आया है, और बड़े बखूबी से उन्होंने दर्शाया है कि कैसे आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। मेरे हिसाब से अभी के तनाव पूर्ण माहौल में यही सही रहेगा”
“अच्छा तो ऐसी बात है”
“जी सर पता नहीं क्यों लोग धर्म को कसूरवार ठहराने लगते ऐसी घटनाओं के होने के बाद”
“नेहा, धर्म को हथियार की तरह इस्तेमाल करते हुए निर्दोश लोगों का खून बहा देने के बाद भी अगर, आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, तो फिर समाज मे होने वाली नारी उत्पीड़न की घटनाओं के लिए पूरा का पूरा पुरुष समाज ही कैसे कसूरवार बन जाता?”
नेहा “जी वो वो…….!”
केबिन में एक सन्नाटा पसर गया।

चाँद

बहुत दिनों से आप सबों से काफी दूर हो चुका हूँ, कुछ व्यक्तिगत कारण है। खैर, काफी दिनों बाद छोटी सी दो पंक्तियां लिखी है-

वो चाँद अगर मेरा होता,
पूनम पे मेरा ही पहरा होता।
पूर्णिमा मुस्कुराती मुंडेर से
चाँदनी संग मेरा ही बसेरा होता।

शीतल बहती बयार संग,
रोशन मेरा हर एक सांझ होता।
प्रियतम की बाहों में सिमट
फिर अमावस का इंतज़ार होता।

32. दर्पण

उत्तुंग हूँ, छूता अम्बर मैं, होता गौरवान्वित हूँ,
हिमाद्रि बन, हिंदुस्तान का दर्पण कहलाता हूँ।

कालजयी हूँ, शाश्वत बन सदियों से गूँजता हूँ,
महाभारत हूँ, कलयुग का दर्पण कहलाता हूँ।

पलता गर्भ हूँ, वक्ष से सिंचित हो चहकता हूँ,
मातृत्व मर्म हूँ, स्त्रीत्व का दर्पण कहलाता हूँ।

धर्म का रूप हूँ, तात के कर्तव्यों का ज्ञाता हूँ,
पुरुषत्व हूँ, मर्यादाओं का दर्पण कहलाता हूँ।

कालखंड हूँ, मानवीय उद्यमों का उद्गाता हूँ,
इतिहास हूँ, भविष्य का दर्पण कहलाता हूँ।

जो जैसा, वैसा ही उसका भेष दिखलाता हूँ,
काँच पे पुते जो पारा, तो दर्पण कहलाता हूँ।

अनेक भावों में, कई शब्दों से बयाँ होता हूँ,
प्रतिबिम्बों को परोसकर दर्पण कहलाता हूँ।

31. रूठे रिश्ते!

Third Collaboration by Me and Nandita! This time it was process reversal, Idea and content were of Nandita and I simply played with few words. I hope you all would love it and dont forget to give your valuable feedbacks.

था गुमां मुझे जिन बुलंदियों पे,
झूठे उस ग़ुरूर के सन्मुख,
प्यार भरे रिश्ते, सूली चढ़ गए।
निकल आयी थी मिलों दूर,
बंधन भी सारे, पीछे छूट गए।
मैं चलती रही, अपनी धुन में
और जीवन के इस सफर में,
मुझसे मेरे वो अपने रूठ गए

अनजान अंधकारमय डगर पे,
मेरी नन्ही उंगलियों को थामे,
वो संभलकर चलना सीखा गए।
नादानियों पे आंखें तरेरकर,
वो सबल बन जीना सीखा गए।
मैं डूब गयी जरा चकाचौंध में,
और जीवन के इस सफर में,
मुझसे मेरे वो अपने रूठ गए।

दुखों के जलधि को समेटकर,
मेरी खुशियों को सहेजकर,
त्याग पे त्याग वो करते गए।
मात पिता के आश्रय बल तले,
मेरे मैं को थे झूठे पर लग गए।
मैं उड़ती रही, खयाली नभ में,
और जीवन के इस सफर में,
मुझसे मेरे वो अपने रुठ गए।

वो अनकहा प्रेम बाबुल का,
वो सौगात भरा दामन मां का
राहों को मेरे रोशन करते गए।
हठ करती रही मैं तो हमेशा,
पर वो नज़रअंदाज़ करते गए।
भटकी मैं मायावी दुनिया में,
और जीवन के इस सफ़र में,
मुझसे मेरे वो अपने रूठ गए।

अर्थ अनर्थ के समझ से परे,
जिस उन्माद के बंधन तले,
छोड़ आयी थी अपने घरौंदे को।
वो जुनून भी ठुकरा गया मुझे,
एक नई मंजिल तलाशने को।
अब पश्चाताप के गर्त में डूब,
ढूंढूं कहाँ पुराने जज्बातों को?
मनाऊं कैसे मैं अपने रूठों को?

By Nandita and Gouri

Don’t be selective – #JusticeForGeeta

Pardon friends, today what I am going to write would not be acceptable to many, but that’s not an issue, it’s totally fair in our democracy. But believe me, we all have become a sort of hypocrite just like our netizens, sold media and spineless cinemawalas. Day by day we are getting selective, even in our outrages and demand for justice.

Just few days back entire social media, print media, electronic media, facebook timeline, twitter was flooded with articles related to kathua incident. And in mean time, taking advantage of this situation, some fringe elements left no stone unturned in demeaning hinduism and santan dharma! I was shocked, really really shocked at the manner in which my religion was demeaned, it’s now beyond damage control.

Bollywood Divas were also the first ones who tried to get benifit of this situation. They were the ones who started felling ashamed in being Hindustani. Mark my words, they might have barely used word “Bharat” in place of “India” in their entire life and suddenly they got an amazing idea that we should try Hindustan, Just because “Hindu” word is in it.

An innocent girl was raped, murdered it was one of the henious crime and every citizen of India has a right to ask for justice in regards to that poor child, but would that happen at cost of targeting my sanatan dharma?

Now a strange situation has emerged, a girl who was also only 11 years old, was raped inside a madarsa, here I am supposed to not bring the name of religion involved, because it might offend them. (means my hinduism can be easily vilified, derrogated but I need to be very careful for them).

So my question is, where are those sickular gang, libtards and placard walas. Why are they silent now? Why there lips are zipped? Ohh I guess, it doesn’t suits there agenda, right?

Now it’s upon us that we should contemplate what kind of hidden and nefarious agenda is going on in this country by dividing and demeaning hinduism. My mother land was divided just because we were not able to safeguard ourselves from those barbaric invaders a thousand year ago, and that process is still in progress.

And dont forget to notice the difference in the approach and mindset.. this picture tells a horrible truth..

“रेपिस्ट से गीता भाभी की शादी करवा दो” – Depraved mentality.

Wake up before it’s too late.

भोला ! एक पुनर्जन्म (कहानी)

परीक्षायें समाप्त हो चुकी थीं, एक हफ्ते पहले ही तृतीय वर्ष का समापन हो चुका था। छात्रावास का आखिरी दिन होने की वजह से चहल पहल भी काफी थी। अधिकांश छात्राओं ने अपना कमरा खाली कर दिया था पर कुछ एक अभी भी रुकी हुई थीं, जो थोड़ी ही देर में अपने अपने गन्तव्य के लिए प्रस्थान करने वाली थीं। माहौल भावुक था, बिछड़ने का गम तो था ही पर साथ ही साथ एक नए सुनहरे भविष्य की खुशियां भी थीं।

इन सब के बीच निहारिका बड़ी विचलित हुई इधर से उधर घूम रही थी, मानो बड़ी बैचनी से किसी को ढूंढ रही हो। भोला कहीं नज़र नहीं आ रहा था, कल के डले हुए बिस्किट पे चींटियों ने अपना हक़ जता दिया था और उसका दूध पीने वाला कटोरा भी कहीं नजर नहीं आ रहा था। आखिर कहाँ गया होगा, आज तीन सालों में ऐसा कभी नहीं हुआ था कि भोला आंखों से ओझल हुआ हो, ये सोचते सोचते वो अतीत के घटनाक्रम को याद करने लगीं।

तीन साल पहले की बात है, निहारिका के छात्रावास में आये हुए कुछ ही हफ्ते बीते थे और एक दिन सुबह पार्क से लौटते वक्त कुत्ते का एक नन्हा सा बच्चा उसके पीछे पीछे हॉस्टल तक आ पहुंचा। निहारिका द्वारा प्रेम पूर्वक दिए गए एक बिस्किट के टुकड़े के बंधन में वो ऐसा बंधा की फिर वहीं का होकर रह गया। अंदर छात्रावास में लाकर रखने की इजाज़त तो थी नहीं, सो सेक्युरिटी वाले नृपेंद्र चाचा ने निहारिका के आग्रह को स्वीकार करते हुए उसके उठने बैठने और सोने की व्यवस्था मेन गेट पे अपने ही केबिन में कर दी।

गहरे काले रंग और माथे पे चाँद जैसे सफेद निशान की वजह से सबने उसका नाम भोला रख दिया। वक़्त बीतने के साथ साथ भोला पूरे कॉलेज में सबका प्रिय हो गया, पर निहारिका के साथ उसका लगाव सबसे अलग और हटकर था। अहले सुबह जब तक वो खुद अपने हाथों से उसे दूध और बिस्किट न दे देती वो किसी और चीज़ पे मुंह तक भी न डालता। थोड़ा बहुत स्वभाव से जिद्दी जरूर था, पर समय और दैनिक दिनचर्या का भी उसे पूरा भान था। अगर कभी निहारिका को वापस आने में देर हो जाये तो खुद उसे ढूंढता हुआ क्लासरूम के दरवाजे तक आ पहुंचता और चुपचाप वहीं बैठा रहता जब तक कि प्रोफेसर क्लास समाप्ति की घोषणा नहीं कर देते थे।

इन सारे पुराने खयालातों में गुम निहारिका के चेहरे पे शिकन की लकीरें उभर आयी, परेशानी ऐसी जान पड़ी मानों कोई अपना गुमशुदा हो गया हो। गुस्सा थोड़ा बहुत उसे खुद पे भी आया, परसों से ही थोड़ा बदला बदला सा लग रहा था भोला, पर उसने ज्यादा तवज्जो नहीं दी थी इस बात को। सुबह से ही सुस्त और शांत था बस जहाँ जहाँ वो जाती चुपचाप वो भी पीछे पीछे हो लेता। उसे अब भान हुआ मानों वो कुछ कहना चाह रहा था, उसकी वो छोटी सी गोल गोल आंखें बहुत उदास थी उस दिन। क्या बात थी? क्या हुआ होगा..? कहीं भोला….!

निहारिका का दिल बैठ गया, और आँखों में पानी उतर आया। नहीं नहीं ऐसा कुछ नहीं हुआ होगा.. पास के मोहल्ले में जरा रम गया होगा अपनी बोरियत मिटाने, उसने अपने मन को झूठी दिलासा देने की भर्शक कोशिश की।

तभी सहपाठी रंजना की आवाज से उसकी तंद्रा भंग हुई जो अपना बैग लेकर जाने के लिए तैयार खड़ी थी, ” निहा फिर चल रहीं हूँ, कब से तुम्हें ही ढूंढ रही थी, तुम्हारा भाई भोला भी नज़र नहीं आ रहा, जाने से पहले तुम दोनों से ही विदा लेनी थी”

“हाँ रंजना दो दिन से नहीं दिख रहा, मैं भी उसे ही ढूंढ रही हूँ, आज मुझे भी जाना है, समझ नहीं आ रहा उसे हमेशा के लिए यहीं अकेला छोड़कर कैसे जाऊँ, बहुत दिनों से यही सोच सोच कर परेशान थी, अब तो पता नहीं कहाँ चला गया” निहारिका ने व्यथित होते हुए जवाब दिया।

दोनों सहेलियों ने गले लग एक दूसरे को भावविह्वल विदाई दी, जाते जाते रंजना कह गयी, “भोला का समाचार कह सुनाना, वरना मुझे भी चिन्ता बनी रहेगी”। उसके जाते ही निहारिका फिर से अपनी छटपटाहट के कैदखाने में कैद हो गयी। तभी उसे नृपेंद्र चाचा आते हुए दिखे, मन में उम्मीद की दबी लौ फिर से जल उठी, शायद उन्हें जरूर कुछ पता होगा। तेज कदमों से चलकर उनके पास पहुँची और एक ही साँस में आतुर हो भोला के बारे में विस्तार से सब कुछ कह सुनाया।

भोला के गुमशुदा हो जाने की खबर से नृपेंद्र चाचा भी थोड़े परेशान से हो उठे और दो दिन पहले के घटनाक्रम को याद करते हुए बोल पड़े “निहारिका बेटे, उस दिन जब शाम के वक़्त मैं घर के लिए निकल रहा था तो भोला मुझे सामने के खेतों से आते हुआ दिखा, पास आया तो देखा उसने मुंह में रुद्राक्ष की एक माला दबा कर रखी थी, वो माला उसने अपने दूध पीने वाले कटोरे में रखा और उल्टे पाँव वापस खेतों की ओर चला गया, मैंने कितनी ही आवाज़ दी पर सिर्फ एक बार पलट कर देखा और जाता रहा। मैंने वो माला सहित उसकी कटोरी यहीं अलमिरे में रख दी थी। ये देखो” इतना कहते ही नृपेंद्र चाचा ने वो कटोरी निकाल के निहारिका के हाथों में दे दी।

रुद्राक्ष की वो माला देख, निहारिका वहीं चक्कर खा फर्श पे बैठ रही। वक़्त के साथ धुंधले पड़ चुके यादों के चित्रफलक पे, पुरानी तस्वीरें खुद बखुद उभरने लगीं। तस्वीरें वो भी ऐसी जो नासूर बन कर हृदय के किसी कोने में छुप कर बैठे हुए थे और मौका मिलते ही आँखों से ऊबकाई बन बाहर आने को बेचैन।


शिवम, बाल्यकाल से ही बुद्धि विवेक से सम्पन्न और पठन पाठन में उतना ही मेधावी । बचपन में ही उसकी योग्यता का संज्ञान लेते हुए प्रधानाध्यापक महोदय ने उसे दो कक्षा की उन्नति दी थी। हर बार कक्षा में प्रथम स्थान मानों उसके लिए पहले से ही आरक्षित हो। पारिवारिक रिश्ते से इतर दोनों सुख दुख में एक दूसरे के पक्के साझेदार थे। खुशियाँ हो दामन में तो वक़्त को भी पंख लग जाते। पर नियति के एक कठोर निर्णय ने इन खुशियों पे ग्रहण लगा दिया।

इस बार कक्षा में निहारिका को प्रथम स्थान मिला था, सभी ने बधाइयां दी पर वो खुश नहीं थी। स्मृति में कैद रह गए थे उसके लिए वो पल जब शिवम के सिराहने बैठ कर उसने कहा था “शिवा तेरे भी अच्छे नंबर आये है” और शिवम ने अपने रूग्ण शरीर की बची हुई सारी शक्ति को समेटकर मुस्कुराने की हर संभव कोशिश की थी। कर्क रोग की वीभत्सता की गवाही जर्जर होता जा रहा उसका शरीर था। पर अभी भी चेहरा सौम्यता और विश्वास से लबरेज, बोल पड़ा “आप देखना बारहवीं में मेरे अंक आपसे ज्यादा होंगे”। उसके इन शब्दों को सुन कर वो नकली हंसी हंस, फिर बाद में फूट फुटकर रोयी थी। कर्क रोग अंतिम चरण में था और अब वापसी की कोई गुंजाइश न थी। शिवम को भी इल्म था अपने सीमित जीवनकाल का, वो तो बस निहारिका और माँ बाबूजी के आँखों से अश्रुओं को बहते हुए नहीं देखना चाहता था।

बारहवीं के रिजल्ट आ गए थे, शिवम का वादा टूट गया था और साथ ही उसके संघर्ष और कष्ट के पूर्ण विराम की घड़ियां भी आ चुकी थीं। अस्पताल के सघन चिकित्सा कक्ष में बीप बीप करती मशीनों के सहारे अपने अंतिम क्षणों को जी रहा था शिवम। मध्यरात्रि के बाद का वो पसरा सन्नाटा जीवन के ही एक दुखद सच को बयां कर रहा था जिसे जानकर भी सब अनजान बने रहने की कोशिश करते हैं। सिराहने के एक तरफ माँ बाबूजी और एक तरफ निहारिका बस इतने में ही सीमित होकर रह गए थे उसके आखिरी क्षण। चीर निंद्रा के आगोश में समा जाने से पहले एक बार उसने आंखें खोली, एक झलक माँ बाबूजी को देखा और फिर निहारिका की और देखते हुए बोल पड़ा,

“माँ बाबूजी को मेरी कमी न महसूस होने देना”

वो फट पड़ी “तू क्यूँ जा रहा है रे शिवा, तेरे ही आराध्य भोलेनाथ से तो दिन रात तुम्हारी सलामती की दुआ मांगती रही मैं और माँ, वो तो बड़े निष्ठुर निकले! तेरे गैरमौजूदगी में क्लास रूम की दीवारें तो अब काटने को दौड़ेंगी। कॉलेज तक तो साथ निभा देता! बोल मेरी इतनी सी ख्वाईश भी पूरी नहीं करेगा!” कहते कहते निहारिका के स्वर रुंध गए और फिर कुछ न बोल सकी, माँ बाबूजी को भी संभालना था, जिम्मेदारी का वादा शिवम ने ले लिया था।

आज तलक शिवम ने उसे निहा ही कह कर पुकारा था, पर जाते जाते बोल गया

“दीदी, वादा रहा आऊंगा आपसे मिलने” और बस इतना कहते ही उसकी पलकें हमेशा के लिए खामोश हो गयी साँसे जरूर कुछ घंटे और चलती रहीं।

अनाथ पैदा हुआ था शिवम इस दुनिया में। पिताजी के दफ्तर के पास की झाड़ियों में फेंका मिला था। वात्सल्य भाव से घर ले आये थे उसे बाबूजी। पर जाते जाते उसने सबको ही अनाथ कर दिया।


पानी के छींटे पड़े तो होश आया, नृपेंद्र चाचा के जान में जान आयी। निहारिका ने एकटक कटोरी को देखा और रुद्राक्ष की माला लेकर अपने गले में डाल ली। भोलेनाथ का परम भक्त था शिवम, रुद्राक्ष की माला हमेशा उसके गले में ही रहा करती थी।

कहते है प्रेम भाव के बंधन में बंधा इंसान जीवन मरण के चक्र में उलझ कर बार बार जन्म लेने को मजबूर होता है। पर यह पुनर्जन्म अलौकिक था, अपने वादे को पूरा करने के लिये शायद वो भोलेनाथ की अनुमति से फिर इस धरती पे आया था, पर इस बार हमेशा के लिए बंधन मुक्त होकर चला गया था शिवम।

निहारिका के चेहरे पे तृप्ति के भाव थे जाते जाते नृपेंद्र चाचा से कह गयी।

“चाचा भोला अब कभी नहीं आएगा वापस”

-समाप्त-

Rhythmic Words ~ 31

इस निस्तब्धता को तुम, मेरी खामोशी न समझ लेना,
सुलगते हुए पावक को, सिर्फ चिंगारी न समझ लेना।
दरियाओं को समेटकर भी, शांत जलधि सा गहरा हूँ,
पर दबी हुई सुनामी को, सिर्फ आँधी न समझ लेना।

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Unwrapping the gift called LIFE

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A drop of ink can make millions think.

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The Elevated girl

Her canon will naturally raise your chest and head.

ambreen

some writes for pleasure...some writes out of pain but writing z all about the overflow of feelings....

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