उत्तुंग हूँ, छूता अम्बर मैं, होता गौरवान्वित हूँ,
हिमाद्रि बन, हिंदुस्तान का दर्पण कहलाता हूँ।
कालजयी हूँ, शाश्वत बन सदियों से गूँजता हूँ,
महाभारत हूँ, कलयुग का दर्पण कहलाता हूँ।
पलता गर्भ हूँ, वक्ष से सिंचित हो चहकता हूँ,
मातृत्व मर्म हूँ, स्त्रीत्व का दर्पण कहलाता हूँ।
धर्म का रूप हूँ, तात के कर्तव्यों का ज्ञाता हूँ,
पुरुषत्व हूँ, मर्यादाओं का दर्पण कहलाता हूँ।
कालखंड हूँ, मानवीय उद्यमों का उद्गाता हूँ,
इतिहास हूँ, भविष्य का दर्पण कहलाता हूँ।
जो जैसा, वैसा ही उसका भेष दिखलाता हूँ,
काँच पे पुते जो पारा, तो दर्पण कहलाता हूँ।
अनेक भावों में, कई शब्दों से बयाँ होता हूँ,
प्रतिबिम्बों को परोसकर दर्पण कहलाता हूँ।
Waah…….uttam koti ki kavita……behtarin…..jitna bhi taarif karun kam hai.
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जी बहुत बहुत शुक्रिया सर्😊😊💐
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Wow!! 👏👏👏
Bahut sundar shabdo ka prayog, behetreen likha hai sir🙏
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धन्यवाद शाम्भवी 😊😊💐
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Bahut sarthark shabdo vali rachna
Behatreen kavita
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आभार प्रतिमा जी 😊😊💐💐
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कैसे तारीफ करें समझ नहीं आता ??? बहतरीन 👌👌👌
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थैंक यू सो मच अदिति😊😊💐
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Thank you 😊😊💐
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Your words mesmerise me.
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Thanks a lot Moushmi 😊😊💐
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Kalajayi rachna
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धन्यवाद आरती जी😊😊💐💐
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Very well written…Keep it up
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Thank you so much shikha 😊😊💐💐
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nice post
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Thanks sir..😊😊💐
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Bahut hi sunder rachana. Please visit my personal blog. Here is the link.
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